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तीसरा लिंग

By: Shriyanshi


हारने को मैं उठी नहीं,

जीतने को मैं उठा हूं,

उठी या उठा पता नहीं,

क्योंकि हमारी कोई पहचान नहीं।

 

बढ़ रही थी छुआ छूत की लहर,

उससे बढ़कर थी किन्नरों पर कहर,

उठ खड़े थे जल्लाद हमें फेकने,

नहीं पता क्यों थे हम ऐसे।

 

मैं था लड़का सबका दुलारा,

छुप- छुपके सजता घर का प्यारा,

मुझे स्त्रियों सा शौक था,

बिंदी, साड़ी,पायल मेरा शौक था।

 

अकस्मात,

मचा कोहराम घर मोहल्ले में,

मेरा निकला जनाजा जैसे हर चाय के ठेले पे,

न घर अपना, न समाज अपना,

हारा- थका पहुंचा कानून के द्वारे पे।

 

बादल गरजे,

घंटे टकराए,

कानून का दरवाजा मूक था,

या यूं कहूं कि,

कानून का अंधा होना सत्य था।

 

सन् अठारह सौ साठ गया,

सन् दो हज़ार चौदह आया,

तब भी वही कानून के पन्ने थे,

आज भी वही कानून के पन्ने हैं।

 

कहीं इज्ज़त नहीं, कहीं धिक्कार है,

कहीं नौकरी नहीं, कहीं मार है,

जीवन के सार की छूटी गाड़ी थी,

अपने देश में आज़ादी थी,

पर आज़ादी अभी आधी थी।

 

अंधेरे को चीरकर नई किरण जागी,

मेरी पहचान को  नई उमंग लागी,

न पुरुष न महिला, मैं तीसरा लिंग,

सन् दो हज़ार अठारह में हमें देश ने अपनाया,

उस दिन हर किन्नर की आंखों में आसूं था आया।

उस दिन मेरी असली आज़ादी आई,

हारने को मैं उठी नहीं,

जीतने को मैं उठा हूं।

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